Ram Prasad Bismil Biography in Hindi | राम प्रसाद बिस्मिल जीवन परिचय
11 जून 1897 को
उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग में पं. मुरलीधर की पत्नी मूलमती की कोख से जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल अपने माता–पिता के दूसरे सन्तान थे। उनसे पूर्व एक
पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बिस्मिल की जन्म–कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी – “यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।
Ram Prasad Bismil Jivani | राम प्रसाद बिस्मिल
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वास्तविक नाम |
राम प्रसाद ‘बिस्मिल‘ |
उपनाम |
बिस्मिल, राम, अज्ञात |
व्यवसाय |
स्वतंत्रता सेनानी, कवि, शायर, अनुवादक, इतिहासकार व साहित्यकार |
जन्मतिथि |
11 जून 1897 |
आयु (मृत्यु के समय) |
30 |
जन्मस्थान |
शाहजहाँपुर, ब्रिटिश भारत |
मृत्यु तिथि |
19 दिसंबर 1927 |
मृत्यु स्थल |
गोरखपुर जेल, ब्रिटिश भारत |
मृत्यु का कारण |
फांसी (सजा–ए–मौत) |
समाधि स्थल |
जिला देवरिया, बरहज, उत्तर प्रदेश, भारत |
धर्म |
हिन्दू |
जाति |
ब्राह्मण |
राष्ट्रीयता |
भारतीय |
Ram Prasad Bismil Family Detail | राम प्रसाद बिस्मिल पारिवारिक
विवरण
राम प्रसाद बिस्मिल के माता–पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह–शावक जैसा लगता था, अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र से निकलने वाला नाम रखने का सुझाव दिया।
माता–पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः राम प्रसाद नाम रखा गया। माँ तो
सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था सो राम ने उनकी पूजा से प्रसन्न होकर प्रसाद के रूप में यह पुत्र दे दिया। बालक को घर में सभी लोग प्यार से राम कहकर ही पुकारते थे।
राम प्रसाद के
जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं, अतः जादू–टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो–चार चक्कर लगाये और मर गया। यह विचित्र अवश्य लगे किन्तु सत्य घटना है और शोध का विषय है। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने स्वयं अपनी आत्मकथा में किया है।
मुरलीधर के
कुल नौ सन्तानें हुईं, जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। राम प्रसाद उनकी दूसरी सन्तान थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।
राम
प्रसाद बिस्मिल कैसे बदले?
राम प्रसाद बिस्मिल ने
उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने राम प्रसाद को पूजा–पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे जिनके व्यक्तित्व का प्रभाव राम प्रसाद के जीवन पर दिखाई देने लगा।
पुजारी के
उपदेशों के कारण राम प्रसाद पूजा–पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। पुजारी की देखा–देखी उसने व्यायाम भी प्रारम्भ कर दिया। पूर्व की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे छूट गईं। मात्र सिगरेट पीने की लत रह गयी थी जो कुछ दिनों पश्चात् उसके एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन के आग्रह पर जाती रही।
अब
तो राम प्रसाद का पढ़ाई में भी मन लगने लगा और बहुत वह बहुत शीघ्र ही अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में आ गया।
राम प्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो
चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा–पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। तभी वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत के सम्पर्क में आया, जिन्होंने राम प्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया व सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने का विशेष आग्रह किया।
सत्यार्थ प्रकाश के
गम्भीर अध्ययन से राम प्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।
राम
प्रसाद बिस्मिल क्रांतिकारी कैसे बने? How did Bismil become a
Revolutionary?
राम प्रसाद जब गवर्नमेण्ट स्कूल शाहजहाँपुर में नवीं कक्षा के छात्र थे तभी दैवयोग से स्वामी सोमदेव (Swami Somdev) का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ।
मुंशी इन्द्रजीत ने
राम प्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ।
एक
ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन व दूसरी ओर स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश–प्रेम की भावना जागृत हुई।
सन् 1916 के
कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं. जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए राम प्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढ़ता की ओर गया। अधिवेशन के दौरान उनका परिचय केशव चक्रवर्ती, सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ।
बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने किन्हीं सिद्धगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय, कानपुर से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था – अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास।
यह
पुस्तक बाबू गनेशप्रसाद के प्रबन्ध से कुर्मी प्रेस, लखनऊ में सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी।
राम प्रसाद ने
यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में दो–दो सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है।
यह
पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब काकोरी काण्ड का अभियोग चला तो साक्ष्य के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। अब यह पुस्तक सम्पादित करके सरफरोशी की तमन्ना नामक ग्रन्थावली के भाग–तीन में संकलित की जा चुकी है।
राम प्रसाद बिस्मिल किस तरह जातिप्रथा से घृणा करते थे और
क्या चाहते थे?
उनकी दादी आदर्श थीं, इनका बिस्मिल के
जीवन पर गहरा असर था। इस प्रसंग में उनका एक अनुभव पढ़ें और सबक लें–
“एक समय किसी चमार की वधू, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुल–प्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुवे (नुपूर) पहने हुए थी और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की निगाह उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इस जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियाँ कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुऐं बिछुवा पहनेंगीं तो ऊँची जाति के घर की स्त्रियां क्या पहनेंगीं? ये लोग नितान्त अशिक्षित तथा मूर्ख हैं किन्तु जाति–अभिमान में चूर रहते हैं।
गरीब–से–गरीब अशिक्षित ब्राह्मण या क्षत्रिय, चाहे वह किसी आयु का हो, यदि शूद्र जाति की बस्ती में से गुजरे तो चाहे कितना ही धनी या वृद्ध कोई शूद्र क्यों न हो, उसको उठकर पालागन या जुहार करनी ही पड़ेगी। यदि ऐसा न करे तो उसी समय वह ब्राह्मण या क्षत्रिय उसे जूतों से मार सकता है और सब उस शूद्र का ही दोष बताकर उसका तिरस्कार करेंगे! यदि किसी कन्या या बहू पर व्यभिचारिणी होने का सन्देह किया जाए तो उसे बिना किसी विचार के मारकर चम्बल में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसी प्रकार यदि किसी विधवा पर व्यभिचार या किसी प्रकार आचरण–भ्रष्ट होने का दोष लगाया जाए तो चाहे वह गर्भवती ही क्यों न हो, उसे तुरन्त ही काटकर चम्बल में पहुंचा दें और किसी को कानों–कान भी खबर न होने दें। वहाँ के मनुष्य भी सदाचारी होते हैं। सबकी बहू–बेटी को अपनी बहू–बेटी समझते हैं। स्त्रियों की मान–मर्यादा की रक्षा के लिए प्राण देने में भी सभी नहीं हिचकिचाते। इस प्रकार के देश में विवाहित होकर सब प्रकार की प्रथाओं को देखते हुए भी इतना साहस करना यह दादी जी का ही काम था।
राम प्रसाद बिस्मिल की अन्तिम रचना Ram Prasad Bismil’s last
composition
मिट गया जब
मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या !
दिल की
बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गईं जब
सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल
उस
घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ
दिले–नादान मिट जा तू भी कू–ए–यार में,
फिर मेरी नाकामियों के
बाद काम आया तो क्या !
काश! अपनी जिंदगी में हम
वो मंजर देखते,
यूँ सरे–तुर्बत कोई महशर–खिराम आया तो
क्या !
आख़िरी शब
दीद के काबिल थी ‘बिस्मिल’ की तड़प,
सुब्ह–दम
कोई अगर बाला–ए–बाम आया तो क्या
राम प्रसाद बिस्मिल
से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ
बिस्मिल के
दादा जी नारायण लाल का पैतृक गाँव बरबाई था। यह गाँव तत्कालीन ग्वालियर राज्य में चम्बल नदी के बीहड़ों के बीच स्थित तोमरघार क्षेत्र के मुरैना जिले में था और वर्तमान में यह मध्य प्रदेश में है।
उनके पिता कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने का
कार्य करते थे।
उनके माता–पिता राम के
आराधक थे, जिसके चलते उनका नाम रामप्रसाद रखा गया।
मुरलीधर के
घर कुल 9 सन्तानें हुई थी, जिनमें से पाँच लड़कियां एवं चार लड़के थे। जन्म के कुछ समय बाद दो लड़कियां एवं दो लड़कों का निधन हो गया था।
बाल्यकाल से
ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उनका मन खेलने में अधिक और पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी उन्हें खूब पीटा करते थे, ताकि वह पढ़ाई–लिखाई कर के एक क्रांतिकारी बन सकें। परन्तु उनकी माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि “बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है पढ़ाई किया करो।” माँ के प्यार भरी सीख का भी उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
18 वर्ष की
आयु से, रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूक से रुपए चुराने की लत पड़ गई थी। चोरी के रुपयों से उन्होंने उपन्यास खरीदकर पढ़ना शुरू कर दिया एवं सिगरेट पीना, भाँग पीना, इत्यादि नशा करना शुरू कर दिया।
उसके बाद उन्होंने उर्दू भाषा में मिडिल की
परीक्षा उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़नी शुरू की। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा–पाठ की विधि बतानी शुरू की। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा–पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।
इससे उनके शरीर में अप्रत्याशित परिवर्तन हो
चुका था, वह नियमित पूजा–पाठ में समय व्यतीत करने लगे थे। एक दिन उनकी मुलाकात मुंशी इन्द्रजीत से हुई। जिन्होंने रामप्रसाद को आर्य समाज के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक “सत्यार्थ प्रकाश” को पढ़ने की प्रेरणा दी। उस पुस्तक के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।
वर्ष 1916 के
कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए, रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली, तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर आकर्षित हुआ।
बिस्मिल की
एक विशेषता यह भी थी कि वे किसी भी स्थान पर अधिक दिनों तक ठहरते नहीं थे।
पलायन के
दिनों में, उन्होंने वर्ष 1918 में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक “दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन” का हिन्दी अनुवाद किया।
FAQ
Q क्या राम प्रसाद बिस्मिल धूम्रपान करते थे?
ANS हाँ
Q क्या राम प्रसाद बिस्मिल शराब पीते थे?
ANS हाँ
Q राम प्रसाद बिस्मिल की मृत्यु कब हुआ
ANS सोमवार 19 दिसम्बर 1927 को प्रात:काल 6 बजकर 30 मिनट पर उनको गोरखपुर जेल में फाँसी दे दी गई।
Q राम प्रसाद बिस्मिल को अपने माता–पिता से अन्तिम मुलाकात कब हुआ था?
ANS 18 दिसम्बर 1927 को
Q राम प्रसाद बिस्मिल का अंतिम संस्कार
कहाँ हुआ था?
ANS उनका अंतिम संस्कार राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर हुआ था।